चचा ग़ालिब की गजल नजर कर रहा हूँ हिंदी अनुवाद के साथ... कोशिश की है पूरा सही लिखने की बिना मतलब को बिगाड़े .... पूरी गजल का मजा लेने के लिए पहले मतलब सहीत पढ़ लीजिए और फिर आखरी मे पूरी गजल पढिये. हर शेर का मतलब उसके बाद की रंगीन लाइन मे लिखा है .... यकीन दिलाता हूँ मतलब समझ आने के बाद आप इस गजल मे खो जायेंगे .
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सब कहाँ, कुछ लाल:ओ-गुल मे. नुमायाँ हों गई
खाक मे क्या सूरते होंगी, कि पिन्हाँ हों गई
सभी तो नही लेकिन कुछ फुल फिर से खिल गए थे
अब मिटटी कोई चेहरा कैसे मिलेगा वो तो कब्र मे जाते ही खत्म हों गया
थीं बनातुन्ना'श-ए-गर्दू, दिन को पर्दे में निहाँ
शब् को उनके जी मे क्या आई कि उरियाँ हों गई
सभी तारे दिन कि रौशनी के पर्दे मे छुप गए हैं
और रात होते ही अजब और निराले तरीके से आकाश मे दिखने लगे
कैद मे याकूब ने ली, गो न युसूफ कि खबर
लेकिन आँखे रौजन-ए-दीवार-ए-जिन्दा हों गई
याकूब जेल मे युसूफ से मिलने जान बुझ कर नहीं आया
लेकिन वो कैद की दीवारों को ऐसे घूरता था जैसे दीवारों मे छेद कर देगा
सब रकीबों से हों नाखुश, पर जनान-ए-मिस्र से
है जुलैखा खुश, कि मह्व-ए-माह-ए-कनआँ हों गई
यू तो सभी प्रतिद्वंद्वियों से नाराज ही रहते हैं लेकिन रूप के देवी से वो खुश हों गई
क्योंकि की उसकी भी कामुकता और आकर्षण की तुलना उनसे की गई
इन परिजादो से लेंगे खुल्द में हम इन्तिकाम
कुदरत-ए-हक- से, यही हूरें अगर वाँ हों गईं
इन परीजादों (गंधर्व) से हम स्वर्ग मे बदला ले लेंगे
अगर परियां हमारे साथ हुई तो इन्हें हम कोई भाव (तव्व्ज्जो -Value) नहीं देंगे
वाँ गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दु'आयें, सर्फ़-ए-दरबाँ हो गई
उन लोगो ने मुझे गालियाँ तो दी लेकिन मै क्या जवाब देता
मेरे पास जितनी दुआएं थी वो तो मै पहले ही दे चूका था
हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है, तर्क-ए-रसूम
मिल्लतें जब मिट गई, अज्जा-ए-ईमाँ हों गई
हमारा जोश, हमारी एक जुटता ही तो हमारी ताकत है इसे न मिटने देना
जोश के खोने से तो कई सभ्यताओं का नाम ही मिट गया है
रंज से खूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसाँ हों गई
अगर इंसान को मुश्किलों की आदत हों जाये तो मुश्किलें मिट ही जाती हैं
मुझ पर इतनी मुश्किलें आई की वो सभी अब आसान लगने लगी हैं
यों ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीराँ हों गई
अगर इसी तरह अपनी तकलीफों के कारण ग़ालिब दुखी रहे
तो संभव है की एक दिन सारी बस्तियां वीरान हों जाएँ
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सब कहाँ, कुछ लाल:ओ-गुल मे. नुमायाँ हों गई
खाक मे क्या सूरते होंगी, कि पिन्हाँ हों गई
थीं बनातुन्ना'श-ए-गर्दू, दिन को पर्दे में निहाँ
शब् को उनके जी मे क्या आई कि उरियाँ हों गई
कैद मे याकूब ने ली, गो न युसूफ कि खबर
लेकिन आँखे रौजन-ए-दीवार-ए-जिन्दा हों गई
है जुलैखा खुश, कि मह्व-ए-माह-ए-कनआँ हों गई
कुदरत-ए-हक- से, यही हूरें अगर वाँ हों गईं
वाँ गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दु'आयें, सर्फ़-ए-दरबाँ हो गई
हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है, तर्क-ए-रसूम
मिल्लतें जब मिट गई, अज्जा-ए-ईमाँ हों गई
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसाँ हों गई
यों ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीराँ हों गई
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