Friday 20 May 2011

मिर्जा असदुल्लाह खान बेग (ग़ालिब)

मिर्जा असदुल्लाह खान बेग (ग़ालिब) एक ऐसा नाम जी पिछले ३०० सालो से उर्दू और फारसी का सबसे बड़ा जानकार रहा है.

शायरी को जो ऊँचे आयाम इस नाम ने दिए हैं वैसे आयाम कोई और नहीं दे पाया है और शायद यही कारण है की आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शेरो मे ग़ालिब का नाम आता है उनके समय से कुछ ३०० सालो बाद भी.

वैसे तो ग़ालिब के बारे मे सैंकडो वेबसाइट मिल जाएँगी हजारों ब्लॉग मिल जायेंगे और मै नहीं जानता जो मै लिखूंगा वो उनसे अलग होगा भी या नहीं लेकिन ये जानता हूँ की मेरे इस ब्लॉग मे मै ग़ालिब की एक एक गजल को एक एक शेर के साथ लिखूंगा और कोशिश करूँगा उनकी उस उर्दू और फारसी को जिसे औरंगजेब और जोख भी शुरू मे नहीं समझ पाए थे उसे हिंदी और इंग्लिश मे समझाने की

चाचा ग़ालिब का असल नाम असद हुआ करता था लेकिन उनके ससुर ने एक बार किसी शेर मे असद नाम का हवाला दे कर कहा की कितना बुरा शेर है, तो १५-१६ साल के चाचा ग़ालिब बोले ये मेरा शेर नहीं है और उस वक्त उनहोंने अपना तक्ल्लुस "ग़ालिब" रखा जो दुनिया ने जाना और जिस नाम का लोहा दुनिया ने माना

उर्दू मे इस नाम के यूँ तो कई मतलब निकल सकते हैं लेकिन मूल अर्थ है विजयी होने वाला या अधिकार करने वाला.  इसके अतिरिक्त इस नाम के और भी मतलब निकल सकते है जैसे "कई बार", "जैसे की" , "बहुत मुमकिन है"  और मेरा मानना है की चचा ग़ालिब ने इन सभी मतलबो का इस्तेमाल ग़ालिब लफ्ज का इस्तेमाल करते हुए करा है.

चचा ग़ालिब की जो बात सबसे अच्छी मुझे लगी उन्हें पढते हुए जानते हुए वो ये की वो कभी किसी धर्म के साथ बरतरी नहीं करते थे. वो अल्लाह के सामने सजदा नहीं करते थे लेकिन कभी उन्होंने किसी भी परम सत्ता के होने से इनकार भी नहीं करा और उनके हिसाब से हिंदू हों या मुस्लिम सब इंसान ही थे. वो दीवाली पर भी उतने ही प्यार से मिठाइयों खाते थे जितने शौक से ईद की सेंवईयां.

लिखने को बहुत है, वो लिखते भी रहूँगा, उनकी हर एक गजल के बाद थोडा थोडा. अभी पहले ये भी देखूं, मेरी औकात है भी क्या उतना लिखने की जितना मै कह गया हूँ.

बस इस सफर मे आपका साथ चाहिए होगा

साथ मिल जाए जो इस सफर मे आपका 
तो रास्ता छोटा न सही हसीन जरूर हों जायेगा 

अगली पोस्ट का इन्तेजार करिये तब तक के लिए शब्बा खैर

कुंदन



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