Monday 30 May 2011

यह न थी हमारी किस्मत , कि विसाल-ए-यार होता


जो अगली गजल मै पेश करने जा रहा हूँ इस गजल का ग़ालिब के दिल से बड़ा करीबी रिश्ता है क्यों की ये गजल उन्होंने किसी और के मुह से तब सुनी थी जब वो खुद बड़े ही बुरे दौर से गुजर रहे थे. पूरा किस्सा फिर कभी अभी पेश है ये गजल 

हमेशा की तरह इतना ही कहूँगा पहले रंगीन मतलब पढ़ लीजिए हर शेर के साथ फिर आखरी मे पूरी गजल आप खो जायेंगे ये तय है

यह न थी हमारी किस्मत , कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इन्तेजार होता

हमारी महबूबा से मिलना हमारी किस्मत मे नहीं था     
अगर ज्यादा जीते रहते तो ये इन्तेजार भी लम्बा ही होता

तिरे वा'दे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना
कि खुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता

तेरे वादे का जो मतलब था शायद मै जानता था या शायद नही 
पर अगर तेरे वादे पर ऐतबार होता तो मै खुशी से ही मर जाता 

तिरी नाजुकी से जाना. कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

तेरे नाजुक होने से हमें पता चला की हम दोनों के बीच एक बंधन था         
तू उसे कभी तोड़ नहीं सकती थी, अगर बात हमारे रिश्ते की सच्चाई की होती 

कोई मेरे दिल से पूंछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

जो दर्द मेरे दिल मे होता है तेरी आँखों के तीर के दिल मे चुभने से             
वो रह रह के उठने वाला दर्द कहा होता, अगर ये तीर दिल के पार ही हो गया होता 


यह कहाँ कि दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा-साज होता, कोई गमगुसार होता

ये कैसी दोस्ती है की मेरे दोस्त ही मेरे आलोचक बन गए हैं                 
अगर वो ऐसा ना करते तो कम से सलाह और दिलासा तो साफ साफ दे सकते थे 
 
गम अगरचे: जाँ-गुसिल है, प कहाँ बचे, कि दिल है
गम-ए-इश्क गर न होता, गम-ए-रोजगार होता

कैसी परेशानी है की दुविधा मे पड़ा दिल कमजोर हों गया है     
अगर दिल का दुख ना होता, तो काम-धाम ना होने का दुख होता 


कहूँ किससे मै कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

मै किस्से कहूँ की रात को जो दर्द मिलता है वो बहुत दर्दनाक है 
मै तो हंस कर मर जाता अगर सिर्फ एक ही बार मरना होता   


हुए मरके हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता 

मरने के बाद दफ़नाने के लिये हमार हाल इतना बुरा है, इससे अच्छा तो ये होता कि हमे नदी मे फैंक देते
मेरी बदनामी करने के लिए ना जनाजे को ले जाने की दिक्कत होती ना ही दफनाने की              


यह मसाइल-ए-तसव्वुफ, यह दीर ब्यान, ग़ालिब
तुझे हम वाली समझते, जो न बाद ख्वार होता

ओ ग़ालिब, हम तुझे सही समझते, तेरे लगाए अपराधों को सही मान लेते  
अगर तू पीता न होता और वो अपराध सिद्ध कर चूका होता              

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यह न थी हमारी किस्मत , कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इन्तेजार होता

तिरे वा'दे पर जिये हम, तो यह जान, झूट जाना
कि खुशी से मर न जाते, अगर ए'तिबार होता

तिरी नाजुकी से जाना. कि बंधा था अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूंछे, तिरे तीर-ए-नीमकश को
यह खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

यह कहाँ कि दोस्ती है, कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारा-साज होता, कोई गमगुसार होता

गम अगरचे: जाँ-गुसिल है, प कहाँ बचे, कि दिल है
गम-ए-इश्क गर न होता, गम-ए-रोजगार होता

कहूँ किससे मै कि क्या है, शब-ए-गम बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

हुए मरके हम जो रुसवा, हुए क्यों न गर्क-ए-दरिया
न कभी जनाजा उठता, न कहीं मजार होता

यह मसाइल-ए-तसव्वुफ, यह दीर ब्यान, ग़ालिब
तुझे हम वाली समझते, जो न बाद ख्वार होता

         



  

Wednesday 25 May 2011

सब कहाँ कुछ लाल-ओ-गुल में नुमायाँ हों गई

चचा ग़ालिब की गजल नजर कर रहा हूँ हिंदी अनुवाद के साथ... कोशिश की है पूरा सही लिखने की बिना मतलब को बिगाड़े .... पूरी गजल का मजा लेने के लिए पहले मतलब सहीत पढ़ लीजिए और फिर आखरी मे पूरी गजल पढिये. हर शेर का मतलब उसके बाद की रंगीन लाइन मे लिखा है .... यकीन दिलाता हूँ मतलब समझ आने के बाद आप इस गजल मे खो जायेंगे .
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सब कहाँ, कुछ लाल:ओ-गुल मे. नुमायाँ हों गई
खाक मे क्या सूरते होंगी, कि पिन्हाँ हों गई

सभी तो नही लेकिन कुछ फुल फिर से खिल गए थे 
अब मिटटी कोई चेहरा कैसे मिलेगा वो तो कब्र मे जाते ही खत्म हों गया

थीं बनातुन्ना'श-ए-गर्दू, दिन को पर्दे में निहाँ
शब् को उनके जी मे क्या आई कि उरियाँ हों गई

सभी तारे दिन कि रौशनी के पर्दे मे छुप गए हैं
और रात होते ही अजब और निराले तरीके से आकाश मे दिखने लगे

कैद मे याकूब ने ली, गो न युसूफ कि खबर
लेकिन आँखे रौजन-ए-दीवार-ए-जिन्दा हों गई

याकूब जेल मे युसूफ से मिलने जान बुझ कर नहीं आया
लेकिन वो कैद की दीवारों को ऐसे घूरता था जैसे दीवारों मे छेद कर देगा


सब रकीबों से हों नाखुश, पर जनान-ए-मिस्र से
है जुलैखा खुश, कि मह्व-ए-माह-ए-कनआँ हों गई

यू तो सभी प्रतिद्वंद्वियों से नाराज ही रहते हैं लेकिन रूप के देवी से वो खुश हों गई
क्योंकि की उसकी भी कामुकता और आकर्षण की तुलना उनसे की गई


इन परिजादो से लेंगे खुल्द में हम इन्तिकाम
कुदरत-ए-हक- से, यही हूरें अगर वाँ हों गईं

इन परीजादों (गंधर्व) से हम स्वर्ग मे बदला ले लेंगे
अगर परियां हमारे साथ हुई तो इन्हें हम कोई भाव (तव्व्ज्जो -Value) नहीं देंगे

वाँ गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दु'आयें, सर्फ़-ए-दरबाँ हो गई

उन लोगो ने मुझे गालियाँ तो दी लेकिन मै क्या जवाब देता
मेरे पास जितनी दुआएं थी वो तो मै पहले ही दे चूका था

हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है, तर्क-ए-रसूम
मिल्लतें जब मिट गई, अज्जा-ए-ईमाँ हों गई

हमारा जोश, हमारी एक जुटता ही तो हमारी ताकत है इसे न मिटने देना
जोश के खोने से तो कई सभ्यताओं का नाम ही मिट गया है 

रंज से खूगर हुआ इंसाँ  तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसाँ हों गई

अगर इंसान को मुश्किलों की आदत हों जाये तो मुश्किलें मिट ही जाती हैं
मुझ पर इतनी मुश्किलें आई की वो सभी अब आसान लगने लगी हैं


यों ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीराँ हों गई

अगर इसी तरह अपनी तकलीफों के कारण ग़ालिब दुखी रहे 
तो संभव है की एक दिन सारी बस्तियां वीरान हों जाएँ

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सब कहाँ, कुछ लाल:ओ-गुल मे. नुमायाँ हों गई
खाक मे क्या सूरते होंगी, कि पिन्हाँ हों गई
 
थीं बनातुन्ना'श-ए-गर्दू, दिन को पर्दे में निहाँ
शब् को उनके जी मे क्या आई कि उरियाँ हों गई
 
कैद मे याकूब ने ली, गो न युसूफ कि खबर
लेकिन आँखे रौजन-ए-दीवार-ए-जिन्दा हों गई

सब रकीबों से हों नाखुश, पर जनान-ए-मिस्र से
है जुलैखा खुश, कि मह्व-ए-माह-ए-कनआँ हों गई

इन परिजादो से लेंगे खुल्द में हम इन्तिकाम
कुदरत-ए-हक- से, यही हूरें अगर वाँ हों गईं
 
वाँ गया भी मैं, तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दु'आयें, सर्फ़-ए-दरबाँ हो गई
 
हम मुव्वहिद हैं, हमारा केश है, तर्क-ए-रसूम
मिल्लतें जब मिट गई, अज्जा-ए-ईमाँ हों गई

रंज से खूगर हुआ इंसाँ  तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ी इतनी कि आसाँ हों गई
 
यों ही गर रोता रहा ग़ालिब, तो ऐ अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम, कि वीराँ हों गई


Sunday 22 May 2011

नक्श फरियादी है...ग़ालिब के पहले मुशायरे की पूरी गजल

मै उर्दू का कोई ज्ञाता नहीं हूँ पर फिर भी मेरे सिमित ज्ञान से मैंने कोशिश करी है इस गजल को हिंदी मे समझाने की, अगर आप को लगे की गलत है कही कुछ तो कृपया सही जरूर करवाए.

इस गजल का अगर आप पूरा मजा लेना कहते हैं तो इसे पहले मतलब के साथ पढ़ लें और उसके बाद आखरी मे  जो पूरी गजल है उसे पढ़ें, आप चचा ग़ालिब की जादूगरी से सम्मोहित ना हों जाये तो कहियेगा.

हर शेर का मतलब उसके बाद की रंगीन पंक्तियों मे लिखा है

नक्श फरियादी है, किसकी शोखि-ए-तहरीर का
कागजी है पैरहन, हर पैकर ए तस्वीर का

हर निर्मित वस्तू निर्माता का एक प्रतिबीम्ब ही है       
हर तस्वीर चित्रित है कागज की थप्पी की शहनशीलता से 

काव-ए-काव ए सख्त जानिहा ए तन्हाई, न पूँछ
सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का

नितांत अकेलेपन से होने वाली पीड़ा को सहन करना ऐसा है जैसे  
सुबह को शाम और पहाड को मैदान मे बदलना                

जज्ब:-ए-बे इख़्तियार-ए-शौक देखा चाहिये
सीन:-ए-शमशीर से बाहर है, दम शमशीर का

इतने ज्यादा जोश होने पर सिर्फ कहने का क्या फायदा है                      
वैसे भी तलवार की ताकत म्यान से बाहर निकल कर युद्ध करने पर ही पता चलती है

आगही दाम-ए-शानिदान, जिस कदर चाहे, बिछाये
मुद्द'आ अंका है, अपने आलम ए तक़रीर का

उन्हें बिछाने दो उनका जाल उनके अनुमान से जितना दूर तक वो चाहे
मेरे शब्दों की रहस्यता और गूढता को पकडना उनके लिए असम्भव है 

बसकि हूँ, गालिब, असीरी में भी आतश जेर-ए-पा
मू-ए-आतश दीद:, है हल्क: मिरी जंजीर का

ओ ग़ालिब, मै बहुत प्रतिरोधी किस्म का व्यक्ति हूँ. फिर भी खुद को नियंत्रण मे रखता हूँ 
मै मेरी बेड़ियों और जंजीरों का सम्मान करता हूँ, और मै मेरी हर इच्छा का त्याग करता हूँ

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नक्श फरियादी है, किसकी शोखि-ए-तहरीर का
कागजी है पैरहन, हर पैकर ए तस्वीर का

काव-ए-काव ए सख्त जानिहा ए तन्हाई, न पूँछ
सुबह करना शाम का, लाना है जू-ए-शीर का

जज्ब:-ए-बे इख़्तियार-ए-शौक देखा चाहिये
सीन:-ए-शमशीर से बाहर है, दम शमशीर का

आगही दाम-ए-शानिदान, जिस कदर चाहे, बिछाये
मुद्द'आ अंका है, अपने आलम ए तक़रीर का

बसकि हूँ, गालिब, असीरी में भी आतश जेर-ए-पा
मू-ए-आतश दीद:, है हल्क: मिरी जंजीर का

उम्मीद है आपको प्रयास पसंद आया होगा :) अगर आपको कोई गलती लगी हों तो कृपया सही करिए.

इस गजल से सम्बन्धित थोड़ी और जानकारी के लिए पिछली पोस्ट यहाँ पढ़ें. 

Saturday 21 May 2011

ग़ालिब का पहला मुशायरा और वो गजल

 
लिखने को तो पहली पोस्ट के लिए कोई भी गजल जो सबकी जुबाँ पर हों वो भी लिख सकता था लेकिन जो जादू चाचा ग़ालिब के पहले मुशायरे कि गजल मे है वो किसी और मे इतनी आसानी से नहीं मिल सकता. इस गजल को पहली बार पढ़ने और सुनने पर मुझ जैसे बेवकूफ को तो यही लगता है जैसे आप एक परग्रही भाषा को सुन या बोल रहे हैं पर थोडा ध्यान दे कर सुनने और समझने पर वो जादूगरी समझ मे आती है जो चचा ग़ालिब ने अपने शेरो मे डाली थी.

वैसे इस मुशायरे कि सबसे खास बात ये थी कि इसमें चाचा ग़ालिब ने सिर्फ पहला शेर और मकता ही पढ़ा था और वो भी वह बैठे किसी भी शख्श को समझ नहीं आया था, चाहे वो आम दरबारी हों या फिर इब्राहीम जोख और औरंगजेब जैसे उम्दा शायर.

हालाकि मै ये नहीं कह रहा हूँ कि मुझे समझ मे आ गया है, ये सब कम से कम पहली १० बार मे तो रत्ती भर भी समझ मे नहीं आया था, पर हमारी जिद के आगे गजल को भी झुकना पड़ा और खुद का मतलब समझाने के लिए मजबूर होना पडा.

हालाकि चचा ग़ालिब सिर्फ एक महान शायर ही नहीं थे, बल्कि बहोत ही हाजिर जवाब, निडर और शानदार व्यंग्यकार भी थे जो बातों बातो मे तीनो खूबियों दिखा देते थे जो कि उन्होंने अपने पहले मुशायरे मे भी दिखाया ही था.

पहले मुशायरे मे चाचा ग़ालिब ने पहला शेर पढ़ा तो उस शेर कि उर्दू मे जो फारसी कि नफासत थी वो वहाँ बैठे किसी भी शख्स को समझ नहीं आई. पहला शेर खत्म होने पर चचा ग़ालिब ने वाह कर के मिसरा उठाने कि गुजारिश कि तो सामने से जवाब आया "बड़ा भारी है भाई हमसे नहीं उठता".

इसके बाद मिर्जा ग़ालिब ने बादशाह औरंगजेब से मकता( गजल का आखरी शेर) पेश करने कि इजाजत मांगी तो बादशाह बोले
 " मिर्जा - क्या पूरी गजल मे सिर्फ एक ही शेर है "
 तो ग़ालिब साहब ने बड़ी ही निडरता से जवाब दिया हुजूर शेर तो और भी है लेकिन डर है कि तब उसे उठाने के लिए कुली बुलाना पड़ जायेंगे

वैसे इस मुशायरे मे जो मकता मिर्जा ग़ालिब ने पेश किया था उसके बारे मे दो राय है.

एक तो ये है कि उन्होंने गजल का ही मकता पेश किया था जो कि नीचे है

बसकि हूँ, गालिब, असीरी में भी आतश जेर-ए-पा
मू-ए-आतश दीद:, है हल्क: मिरी जंजीर का

इस मकते के बाद लोगो ने कानाफूसी करी लेकिन एक भी वाह नहीं और ग़ालिब महफ़िल छोड़ कर चले गए.

और दूसरा ये कि उन्होंने एक नया शेर उसमे जोड़ा था जो उस वक्त तो उनकी बेइज्जती का सबब बना था लेकिन बाद मे सारी दुनिया ने ग़ालिब कि तारीफ करने के लिए उसी शेर का सहारा लिया वो है

यूँ तो दुनिया मे है और भी सुखनवर बहोत अच्छे
कहते हैं. के ग़ालिब का है अंदाजे बयां और
 
जब ग़ालिब ने ये दूसरा शेर कहा तो उन्हें सुनने को मिला हमें शायरों से शायरी सुनना है खुद कि तारीफ करने वाले लोगो कि खुद के लिए की जाने वाली वाह वाही नहीं.

और इसके बाद चचा ग़ालिब मुशायरा छोड़ कर चले गए

अगली पोस्ट मे पूरी गजल लिखूंगा और कोशिश करूँगा उसके एक-एक शेर और एक-एक अल्फाज को हिंदी और इंग्लिश मे समझाने कि.

तब तक के लिए आपका प्यार दीजिए और इन्तेजार कीजिये

अगली  पोस्ट के लिए यहाँ क्लिक करे

Friday 20 May 2011

मिर्जा असदुल्लाह खान बेग (ग़ालिब)

मिर्जा असदुल्लाह खान बेग (ग़ालिब) एक ऐसा नाम जी पिछले ३०० सालो से उर्दू और फारसी का सबसे बड़ा जानकार रहा है.

शायरी को जो ऊँचे आयाम इस नाम ने दिए हैं वैसे आयाम कोई और नहीं दे पाया है और शायद यही कारण है की आज भी सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले शेरो मे ग़ालिब का नाम आता है उनके समय से कुछ ३०० सालो बाद भी.

वैसे तो ग़ालिब के बारे मे सैंकडो वेबसाइट मिल जाएँगी हजारों ब्लॉग मिल जायेंगे और मै नहीं जानता जो मै लिखूंगा वो उनसे अलग होगा भी या नहीं लेकिन ये जानता हूँ की मेरे इस ब्लॉग मे मै ग़ालिब की एक एक गजल को एक एक शेर के साथ लिखूंगा और कोशिश करूँगा उनकी उस उर्दू और फारसी को जिसे औरंगजेब और जोख भी शुरू मे नहीं समझ पाए थे उसे हिंदी और इंग्लिश मे समझाने की

चाचा ग़ालिब का असल नाम असद हुआ करता था लेकिन उनके ससुर ने एक बार किसी शेर मे असद नाम का हवाला दे कर कहा की कितना बुरा शेर है, तो १५-१६ साल के चाचा ग़ालिब बोले ये मेरा शेर नहीं है और उस वक्त उनहोंने अपना तक्ल्लुस "ग़ालिब" रखा जो दुनिया ने जाना और जिस नाम का लोहा दुनिया ने माना

उर्दू मे इस नाम के यूँ तो कई मतलब निकल सकते हैं लेकिन मूल अर्थ है विजयी होने वाला या अधिकार करने वाला.  इसके अतिरिक्त इस नाम के और भी मतलब निकल सकते है जैसे "कई बार", "जैसे की" , "बहुत मुमकिन है"  और मेरा मानना है की चचा ग़ालिब ने इन सभी मतलबो का इस्तेमाल ग़ालिब लफ्ज का इस्तेमाल करते हुए करा है.

चचा ग़ालिब की जो बात सबसे अच्छी मुझे लगी उन्हें पढते हुए जानते हुए वो ये की वो कभी किसी धर्म के साथ बरतरी नहीं करते थे. वो अल्लाह के सामने सजदा नहीं करते थे लेकिन कभी उन्होंने किसी भी परम सत्ता के होने से इनकार भी नहीं करा और उनके हिसाब से हिंदू हों या मुस्लिम सब इंसान ही थे. वो दीवाली पर भी उतने ही प्यार से मिठाइयों खाते थे जितने शौक से ईद की सेंवईयां.

लिखने को बहुत है, वो लिखते भी रहूँगा, उनकी हर एक गजल के बाद थोडा थोडा. अभी पहले ये भी देखूं, मेरी औकात है भी क्या उतना लिखने की जितना मै कह गया हूँ.

बस इस सफर मे आपका साथ चाहिए होगा

साथ मिल जाए जो इस सफर मे आपका 
तो रास्ता छोटा न सही हसीन जरूर हों जायेगा 

अगली पोस्ट का इन्तेजार करिये तब तक के लिए शब्बा खैर

कुंदन